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Saturday, December 8, 2012

Uttararāmacarita 2.26

चिराद् वेगारम्भी प्रसृत इव तीव्रो विषरसः
कुतश्चित् संवेगाच्चलित इव शल्यस्य शकलः ।
व्रणो रूढग्रन्थिः स्फुटित इव हृन्मर्मणि पुनर्
पुराभूतः शोको विकलयति मां नूतन इव ।।